बुधवार, 4 जून 2014

सिंहासन बतीसी : कौमुदी

सातवीं पुतली कौमुदी ने जो कथा कही वह इस प्रकार है- एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने शयन-कक्ष में सो रहे थे। अचानक उनकी नींद करुण-क्रन्दन सुनकर टूट गई। उन्होंने ध्यान लगाकर सुना तो रोने की आवाज नदी की तरफ से आ रही थी और कोई स्री रोए जा रही थी। विक्रम की समझ में नहीं आया कि कौन सा दुख उनके राज्य में किसी स्री को इतनी रात गए बिलख-बिलख कर रोने को विवश कर रहा है। उन्होंने तुरन्त राजपरिधान पहना और कमर में तलवार लटका कर आवाज़ की दिशा में चल पड़े। क्षिप्रा के तट पर आकर उन्हें पता चला कि वह आवाज़ नदी के दूसरे किनारे पर बसे जंगल से आ रही है। उन्होंने तुरन्त नदी में छलांग लगा दी तथा तैरकर दूसरे किनारे पर पहुँचे। फिर चलते-चलते उस जगह पहुँचे जहाँ से रोने की आवाज़ आ रही थी। उन्होंने देखा कि झाड़ियों में बैठी एक स्री रो रही है।

उन्होंने उस स्री से रोने का कारण पूछा। स्री ने कहा कि वह कई लोगों को अपनी व्यथा सुना चुकी है, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। राजा ने उसे विश्वास दिलाया कि वे उसकी मदद करने का हर संभव प्रयत्न करेंगे। तब स्री ने बताया कि वह एक चोर की पत्नी है और पकड़े जाने पर नगर कोतवाल ने उसे वृक्ष पर उलटा टँगवा दिया है। राजा ने पूछा क्या वह इस फैसले से खुश नहीं है। इस पर औरत ने कहा कि उसे फैसले पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन वह अपने पति को भूखा-प्यासा लटकता नहीं देख सकती। चूँकि न्याय में इस बात की चर्चा नहीं कि वह भूखा-प्यासा रहे, इसलिए वह उसे भोजन तथा पानी देना चाहती है।

विक्रम ने पूछा कि अब तक उसने ऐसा किया क्यों नहीं। इस पर औरत बोली कि उसका पति इतनी ऊँचाई पर टँगा हुआ है कि वह बगैर किसी की सहायता के उस तक नहीं पहुँच सकती और राजा के डर से कोई भी दण्डित व्यक्ति की मदद को तैयार नहीं होता। तब विक्रम ने कहा कि वह उनके साथ चल सकती है। दरअसल वह औरत पिशाचिनी की और वह लटकने वाला व्यक्ति उसका पति नहीं था। वह उसे राजा के कन्धे पर चढ़कर खाना चाहती थी। जब विक्रम उस पेड़ के पास आए तो वह उस व्यक्ति को चट कर गई। तृप्त होकर विक्रम को उसने मनचाही चीज़ मांगने को कहा। विक्रम ने कहा वह अन्नपूर्णा प्रदान करे जिससे उनकी प्रजा कभी भूखी नहीं रहे। इस पर वह पिशाचिनी बोली कि अन्नपूर्णा देना उसके बस में नहीं, लेकिन उसकी बहन प्रदान कर सकती है। विक्रम उसके साथ चलकर नदी किनारे आए जहाँ एक झोपड़ी थी।

पिशाचिनी के आवाज़ देने पर उसकी बहन बाहर निकली। बहन को उसने राजा का परिचय दिया और कहा कि विक्रमादित्य अन्नपूर्णा के सच्चे अधिकारी है, अत: वह उन्हें अन्नपूर्णा प्रदान करे। उसकी बहन ने सहर्ष अन्नपूर्णा उन्हें दे दी। अन्नपूर्णा लेकर विक्रम अपने महल की ओर रवाना हुए। तब तक भोर हो चुकी थी। रास्ते में एक ब्राह्मण मिला। उसने राजा से भिक्षा में भोजन माँगा। विक्रम ने अन्नपूर्णा पात्र से कहा कि ब्राह्मण को पेट भर भोजन कराए। सचमुच तरह-तरह के व्यंजन ब्राह्मण कि सामने आ गए। जब ब्राह्मण ने पेट भर खाना खा लिया तो राजा ने उसे दक्षिणा देना चाहा। ब्राह्मण अपनी आँखों से अन्नपूर्णा पात्र का चमत्कार देख चुका था, इसलिए उसने कहा- "अगर आप दक्षिणा देना ही चाहते है तो मुझे दक्षिणास्वरुप यह पात्र दे दें, ताकि मुझे किसी के सामने भोजन के लिए हाथ नहीं फैलाना पड़े।" विक्रम ने बेहिचक उसी क्षण उसे वह पात्र दे दिया। ब्राह्मण राजा को आशीर्वाद देकर चला गया और वे अपने महल लौट गए।


रविवार, 13 अप्रैल 2014

सिंहासन बतीसी : चित्रलेखा

दूसरी पुतली चित्रलेखा की कथा इस प्रकार है- एक दिन राजा विक्रमादित्य शिकार खेलते-खेलते एक ऊँचे पहाड़ पर आए। वहाँ उन्होंने देखा एक साधु तपस्या कर रहा है। साधु की तपस्या में विघ्न नहीं पड़े यह सोचकर वे उसे श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके लौटने लगे। उनके मुड़ते ही साधु ने आवाज़ दी और उन्हें रुकने को कहा। विक्रमादित्य रुक गए और साधु ने उनसे प्रसन्न होकर उन्हें एक फल दिया। उसने कहा- "जो भी इस फल को खाएगा तेजस्वी और यशस्वी पुत्र प्राप्त करेगा।" फल प्राप्त कर जब वे लौट रहे थे, तो उनकी नज़र एक तेज़ी से दौड़ती महिला पर पड़ी। दौड़ते-दौड़ते एक कुँए के पास आई और छलांग लगाने को उद्यत हुई। विक्रम ने उसे थाम लिया और इस प्रकार आत्महत्या करने का कारण जानना चाहा। महिला ने बताया कि उसकी कई लड़कियाँ हैं पर पुत्र एक भी नहीं। चूँकि हर बार लड़की ही जनती है, इसलिए उसका पति उससे नाराज है और गाली-गलौज तथा मार-पीट करता है। वह इस दुर्दशा से तंग होकर आत्महत्या करने जा रही थी। राजा विक्रमादित्य ने साधु वाला फल उसे दे दिया तथा आश्वासन दिया कि अगर उसका पति फल खाएगा, तो इस बार उसे पुत्र ही होगा। कुछ दिन बीत गए।

एक दिन एक ब्राह्मण विक्रम के पास आया और उसने वही फल उसे भेट किया। विक्रम स्री की चरित्रहीनता से बहुत दुखी हुए। ब्राह्मण को विदा करने के बाद वे फल लेकर अपनी पत्नी के पास आए और उसे वह फल दे दिया। विक्रम की पत्नी भी चरित्रहीन थी और नगर के कोतवाल से प्रेम करती थी। उसने वह फल नगर कोतवाल को दिया ताकि उसके घर यशस्वी पुत्र जन्म ले। नगर कोतवाल एक वेश्या के प्रेम में पागल था और उसने वह फल उस वेश्या को दे दिया। वेश्या ने सोचा कि वेश्या का पुत्र लाख यशस्वी हो तो भी उसे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त हो सकती है। उसने काफी सोचने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि इस फल को खाने का असली अधिकारी राजा विक्रमादित्य ही है। उसका पुत्र उसी की तरह योग्य और सामध्र्यवान होगा तो प्रजा की देख-रेख अच्छी तरहा होगी और सभी खुश रहेगे। यही सोचकर उसने विक्रमादित्य को वह फल भेंट कर दिया। फल को देखकर विक्रमादित्य ठगे-से रह गए। उन्होंने पड़ताल कराई तो नगर कोतवाल और रानी के अवैध सम्बन्ध का पता चल गया। वे इतने दुखी और खिन्न हो गए कि राज्य को ज्यों का त्यों छोड़कर वन चले गए और कठिन तपस्या करने लगे।

चूँकि विक्रमादित्य देवताओं और मनुष्यों को समान रुप से प्रिय थे, देवराज इन्द्र ने उनकी अनुपस्थिति में राज्य की रक्ष के लिए एक शक्तिशाली देव भेज दिया। वह देव नृपविहीन राज्य की बड़ी मुस्तैदी से रक्षा तथा पहरेदारी करने लगा। कुछ दिनों के बाद विक्रमादित्य का मन अपनी प्रजा को देखने को करने लगा। जब उन्होंने अपने राज्य में प्रवेश करने की चेष्टा की तो देव सामने आ खड़ा हुआ। उसे अपनी वास्तविक पहचान देने के लिए विक्रम ने उससे युद्ध किया और पराजित किया। पराजित देव मान गया कि उसे हराने वाले विक्रमादित्य ही हैं और उसने उन्हें बताया कि उनका एक पिछले जन्म का शत्रु यहाँ आ पहुँचा है और सिद्धि कर रहा है। वह उन्हें खत्म करने का हर सम्भव प्रयास करेगा।

यदि विक्रम ने उसका वध कर दिया तो लम्बे समय तक वे निर्विघ्न राज्य करेंगे। योगी के बारे में सब कुछ बताकर उस देव ने राजा से अनुमति ली और चला गया। विक्रम की चरित्रहीन पत्नी तब तक ग्लानि से विष खाकर मर चुकी थी। विक्रम ने आकर अपना राजपाट सम्भाल लिया और राज्य का सभी काम सुचारुपूर्वक चलने लगा। कुछ दिनों के बाद उनके दरबार में वह योगी आ पहुँचा। उसने विक्रम को एक ऐसा फल दिया जिसे काटने पर एक कीमती लाल निकला। पारितोषिक के बदले उसने विक्रम से उनकी सहायता की कामना की। विक्रम सहर्ष तैयार हो गए और उसके साथ चल पड़े। वे दोनों श्मशान पहुँचे तो योगी ने बताया कि एक पेड़ पर बेताल लटक रहा है और एक सिद्धि के लिए उसे बेताल की आवश्यकता है। उसने विक्रम से अनुरोध किया कि वे बेताल को उतार कर उसके पास ले आएँ।


विक्रम उस पेड़ से बेताल को उतार कर कंधे पर लादकर लाने की कोशिश करने लगे। बेताल बार-बार उनकी असावधानी का फायदा उठा कर उड़ जाता और पेड़ पर लटक जाता। ऐसा चौबीस बार हुआ। हर बार बेताल रास्ते में विक्रम को एक कहानी सुनाता। पच्चीसवीं बार बेताल ने विक्रम को बताया कि जिस योगी ने उसे लाने भेजा है वह दुष्ट और धोखेबाज़ है। उसकी तांत्रिक सिद्धी की आज समाप्ति है तथा आज वह विक्रम की बलि दे देगा जब विक्रम देवी के सामने सर झुकाएगा। राजा की बलि से ही उसकी सिद्धि पूरी हो सकती है।


शनिवार, 29 मार्च 2014

सिंहासन बतीसी : रत्नमंजरी

पहली पुतली रत्नमंजरी राजा विक्रम के जन्म तथा इस सिंहासन प्राप्ति की कथा बताती है। आर्याव में एक राज्य था जिसका नाम था अम्बावती। वहाँ के राजा गंधर्वसेन ने चारों वणाç की स्रियों से चार विवाह किये थे। ब्राह्मणी के पुत्र का नाम ब्रह्मवीत था। क्षत्राणी के तीन पुत्र हुए- शंख, विक्रम तथा भर्तृहरि। वैश्य पत्नी ने चन्द्र नामक पुत्र को जन्म दिया तथा शूद्र पत्नी ने धन्वन्तरि नामक पुत्र को। ब्रह्मणीत को गंधर्वसेन ने अपना दीवान बनाया, पर वह अपनी जिम्मेवारी अच्छी तरह नहीं निभा सका और राज्य से पलायन कर गया। कुछ समय भटकने के बाद धारानगरी में ऊँचा ओहदा प्राप्त किया तथा एक दिन राजा का वध करके ख़ुद राजा बन गया। काफी दिनों के बाद उसने उज्जैन लौटने का विचार किया, लेकिन उज्जैन आते ही उसकी मृत्यु हो गई।

क्षत्राणी के बड़े पुत्र शंख को शंका हुई कि उसके पिता विक्रम को योग्य समझकर उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते हैं और उसने एक दिन सोए हुए पिता का वध करके स्वयं को राजा घोषित कर दिया। हत्या का समाचार दावानल की तरह फैला और उसके सभी भाई प्राण रक्षा के लिए भाग निकले। विक्रम को छोड़कर बाकी सभी भाइयों का पता उसे चल गया और वे सभी मार डाले गए। बहुत प्रयास के बाद शंख को पता चला कि घने जंगल में सरोवर के बगल में एक कुटिया में विक्रम रह रहा है तथा कंदमूल खाकर घनघोर तपस्या में रत है। वह उसे मारने की योजना बनाने लगा और एक तांत्रिक को उसने अपने षडयंत्र में शामिल कर लिया।


योजनानुसार तांत्रिक विक्रम को भगवती आराधना के लिए राज़ी करता तथा भगवती के आगे विक्रम के सर झुकाते ही शंख तलवार से वार करके उसकी गर्दन काट डालता। मगर विक्रम ने खतरे को भाँप लिया और तांत्रिक को सर झुकाने की विधि दिखाने को कहा। शंख मन्दिर में छिपा हुआ था। उसने विक्रम के धोखे में तांत्रिक की हत्या कर दी। विक्रम ने झपट कर शंख की तलवार छीन कर उसका सर धड़ से अलग कर दिया। शंख की मृत्यु के बाद उसका राज्यारोहण हुआ। एक दिन शिकार के लिए विक्रम जंगल गए। मृग का पीछा करते-करते सबसे बिछुड़कर बहुत दूर चले आए। उन्हें एक महल दिखा और पास आकर पता चला कि वह महल तूतवरण का है जो कि राजा बाहुबल का दीवान है। तूतवरण ने बात ही बात में कहा कि विक्रम बड़े ही यशस्वी राजा बन सकते हैं, यदि राजा बाहुबल उनका राजतिलक करें। और उसने यह भी बताया कि भगवान शिव द्वारा प्रदत्त अपना स्वर्ण सिंहासन अगर बाहुबल विक्रम को दे दें तो विक्रम चक्रवर्ती सम्राट बन जांएगे। बाहुबल ने विक्रम का न केवल राजतिलक किया, बल्कि खुशी-खुशी उन्हें स्वर्ण सिंहासन भी भेंट कर दिया। कालांतर में विक्रमादित्य चक्रवर्ती सम्राट बन गए और उनकी कीर्तिपताका सर्वत्र लहरा उठी।


गुरुवार, 6 मार्च 2014

सिंहासन बत्तीसी


प्रजावत्सल, जननायक, प्रयोगवादी एवं दूरदर्शी महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी ३२ कथाओं का संग्रह है जो बेताल पंचविशाति की भांति लोकप्रिय हुआ। संभवत: यह संस्कृत की रचना है जो उत्तरी संस्करण में 'सिंहासन द्वात्रींशिका' तथा 'विक्रमचरित' के नाम से दक्षिणी संस्करण में उपलब्ध है। 

पहले के संस्कर्ता एक मुनि कहे जाते हैं जिनका नाम क्षेभेन्द्र था। बंगाल में वररुचि के द्वारा प्रस्तुत संस्करण भी इसी के समरुप माना जाता है। इसका दक्षिणी रुप ज्यादा लोकप्रिय हुआ कि लोक भाषाओं में इसके अनुवाद होते रहे और पौराणिक कथाओं की तरह भारतीय समाज में मौखिक परम्परा के रुप में रच-बस गए। इन कथाओं की रचना 'बेताल पंचविशति' या 'बेताल पच्चीसी' के बाद हुई पर निश्चित रुप से इनके रचनाकाल के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। इतना लगभग तय है कि इनकी रचना धारा के राजा भोज के समय में नहीं हुई। 

चूंकि प्रत्येक कथा राजा भोज का उल्लेख करती है, अत: इसका रचना काल ११वीं शताब्दी के बाद होगा। इन कथाओं की भूमिका भी कथा ही है जो राजा भोज की कथा कहती है। ३२ कथाएँ ३२ पुतलियों के मुख से कही गई हैं जो एक सिंहासन में लगी हुई हैं। यह सिंहासन राजा भोज को विचित्र परिस्थिति में प्राप्त होता है। 

एक दिन राजा भोज को मालूम होता है कि एक साधारण-सा चरवाहा अपनी न्यायप्रियता के लिए विख्यात है, जबकि वह बिल्कुल अनपढ़ है तथा पुश्तैनी रुप से उनके ही राज्य के कुम्हारों की गायें, भैंसे तथा बकरियाँ चराता है। जब राजा भोज ने तहक़ीक़ात कराई तो पता चला कि वह चरवाहा सारे फ़ैसले एक टीले पर चढ़कर करता है। राजा भोज की जिज्ञासा बढ़ी और उन्होंने खुद भेष बदलकर उस चरवाहे को एक जटिल मामले में फैसला करते देखा। उसके फैसले और आत्मविश्वास से भोज इतना अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने उससे उसकी इस अद्वितीय क्षमता के बारे में जानना चाहा। जब चरवाहे ने जिसका नाम चन्द्रभान था बताया कि उसमें यह शक्ति टीले पर बैठने के बाद स्वत: चली आती है, भोज ने सोचविचार कर टीले को खुदवाकर देखने का फैसला किया। जब खुदाई सम्पन्न हुई तो एक राजसिंहासन मिट्टी में दबा दिखा। यह सिंहासन कारीगरी का अभूतपूर्व रुप प्रस्तुत करता था। 

इसमें बत्तीस पुतलियाँ लगी थीं तथा कीमती रत्न जड़े हुए थे। जब धूल-मिट्टी की सफ़ाई हुई तो सिंहासन की सुन्दरता देखते बनती थी। उसे उठाकर महल लाया गया तथा शुभ मुहूर्त में राजा का बैठना निश्चित किया गया। ज्योंहि राजा ने बैठने का प्रयास किया सारी पुतलियाँ राजा का उपहास करने लगीं। खिलखिलाने का कारण पूछने पर सारी पुतलियाँ एक-एक कर विक्रमादित्य की कहानी सुनाने लगीं तथा बोली कि इस सिंहासन जो कि राजा विक्रमादित्य का है, पर बैठने वाला उसकी तरह योग्य, पराक्रमी, दानवीर तथा विवेकशील होना चाहिए। ये कथाएँ इतनी लोकप्रिय हैं कि कई संकलनकर्त्ताओं ने इन्हें अपनी-अपनी तरह से प्रस्तुत किया है। सभी संकलनों में पुतलियों के नाम दिए गए हैं पर हर संकलन में कथाओं में कथाओं के क्रम में तथा नामों में और उनके क्रम में भिन्नता पाई जाती है।



एक संकलन में (जो कि प्रामाणिक नहीं है) नामों का क्रम इस प्रकार है-
1. रत्नमंजरी
2. चित्रलेखा
3.चन्द्रकला
4. कामकंदला
5. लीलावती
6. रविभामा
7. कौमुदी
8. पुष्पवती
9. मधुमालती
10. प्रभावती
11. त्रिलोचना
12. पद्मावती
13. कीर्तिमती
14. सुनयना
15. सुन्दरवती
16. सत्यवती
17. विद्यावती
18. तारावती
19. रुपरेखा
20. ज्ञानवती
21. चन्द्रज्योति
22. अनुरोधवती
23. धर्मवती
24. करुणावती
25. त्रिनेत्री
26. मृगनयनी
27. मलयवती
28. वैदेही
29. मानवती
30. जयलक्ष्मी
31. कौशल्या
32. रानी रुपवती